बूढ़े पेड़ की छांव
(लेखक: ANUJ KUMAR)
प्रस्तावना
किशुन महतो एक साधारण किसान थे, लेकिन उनके सपनों की कोई सीमा नहीं थी। गरीबी, अभाव और संघर्षों के बीच उन्होंने अपने तीन बेटों को पढ़ा-लिखाकर काबिल इंसान बनाया।
भाग 1: मेहनत की फसल
किशुन खेतों में दिन-रात पसीना बहाते थे। फटे पुराने कपड़े, टूटी चप्पलें और अधजला चूल्हा – सब कुछ सहा, बस बच्चों की पढ़ाई में कोई कमी नहीं आने दी।
> किशुन (बेटों से):
"हम गरीब हैं, मगर सपने अमीर हैं। एक दिन तुम्हारे कारण हमारा नाम होगा बेटा।"
बड़ी मेहनत के बाद:
अर्जुन पुलिस सेवा में भर्ती हुआ।
सुंदर होमगार्ड बना।
सिद्धो ने प्राइवेट नौकरी शुरू की।
भाग 2: बिखरती डोर
किशुन दा का देहांत हुआ। तीनों बेटे अपने-अपने परिवार और जिम्मेदारियों में उलझ गए।
समय बीता, अर्जुन पुलिस सेवा से रिटायर हुआ। उसके दो बेटे – प्रमोद और वीरेन्द्र, और एक बेटी थी।
रिटायरमेंट के समय अर्जुन को अच्छी-खासी रकम मिली, लेकिन...
> प्रमोद:
"अब्बा को पेंशन मिलती रहेगी, ये पैसे हमें चाहिए।"
> वीरेन्द्र:
"हमने ही तो आपकी सेवा की है अब तक, हमें बराबर हिस्सा मिलना चाहिए!"
अर्जुन बेटों की बातों में आ गया और सब कुछ उन्हें दे दिया।
भाग 3: खोखली उम्मीदें
1-2 साल बीते। अब पेंशन के पैसे को लेकर दोनों बेटों में विवाद शुरू हो गया।
बिना नौकरी, बिना जिम्मेदारी के दोनों सिर्फ पैसे के लिए लड़ते।
> प्रमोद:
"हर बार तू ज़्यादा ले लेता है!"
> वीरेन्द्र:
"मैं ही तो डॉक्टर के पास लेकर जाता हूँ!"
> अर्जुन (थके स्वर में):
"क्या मैं अब किसी का नहीं रहा?"
झगड़ों से तंग आकर अर्जुन ने बेटों का घर छोड़ दिया।
भाग 4: बेटी का आसरा
अब अर्जुन अपनी बेटी के घर रह रहे हैं, जहाँ उन्हें सुकून मिला।
> बेटी:
"बाबूजी, आप मेरे लिए सब कुछ हैं। आप मेरे घर में नहीं, मेरे दिल में रहते हैं।"
> अर्जुन (आँखों में आँसू लिए):
"तू ही मेरी असली औलाद निकली... बेटा तो बस नाम के रहे।"
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समाप्ति व संदेश:
यह कहानी समाज की उस सच्चाई को उजागर करती है जहाँ बुज़ुर्गों की कीमत तब तक होती है, जब तक वे कुछ दे सकते हैं। लेकिन जो संतान देने के बाद ठुकरा दे, वह संतान नहीं, एक भूल है।
बुजुर्गों का सम्मान करें – वो नींव हैं, जिन पर हमारा जीवन खड़ा है।
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