एक रात की बात
(Anuj kumar)
"ख्याल रखना अपना, और पढ़ाई में मन लगाना," माँ ने टिफिन पकड़ाते हुए कहा।
पिता ने चुपचाप सिर पर हाथ फेरा और बस इतना कहा, "बेटा, ये साल बहुत अहम है। अबकी बार कहीं चूक मत करना।"
गाँव से पहली बार शहर जा रहा मुकेश, दिल में हज़ार सपने लिए। आँखों में भविष्य के सुनहरे रंग और दिल में एक ही ख्वाहिश—"इस बार कुछ करके दिखाना है।"
घरवालों की उम्मीदें इतनी भारी थीं कि लगता था जैसे हर कदम पर उनकी नज़रों का बोझ है।
शुरुआत में मुकेश ने जी-जान से पढ़ाई की। सुबह से कोचिंग, दोपहर में लाइब्रेरी, और रात को देर तक पढ़ाई। पर धीरे-धीरे... सब ढीला पड़ने लगा।
एक साल बाद जब रिज़ल्ट आया, तो सब कुछ वैसा नहीं था जैसा सोचा था। न कोई रैंक, न ही कोई उम्मीद की किरण।
घर फोन किया तो माँ ने पूछा,
"कैसा चल रहा है बेटा सब?"
पिता ने कहा,
"हम जानते हैं तू मेहनती है, बस थोड़ा और ध्यान दे।"
मुकेश को लगा जैसे किसी ने उसके ज़ख्मों पर नमक छिड़क दिया हो। वो झल्ला गया—
"पढ़ाई छोड़ दूँगा मैं! रोज़-रोज़ की पूछताछ से तंग आ गया हूँ!"
माँ चुप हो गई। पिता ने कुछ नहीं कहा, लेकिन मुकेश की आवाज़ में जो टूटन थी, वो सब समझ गए।
कई दिन बीत गए। फिर एक दिन मुकेश ने खुद को समझाया, "नहीं, मैं हार नहीं मानूंगा।"
वह फिर से जुट गया पढ़ाई में। लेकिन इस बार दिल से नहीं, बस ज़िम्मेदारी निभाने जैसा।
इन्हीं दिनों उसकी दोस्ती एक लड़की से हो गई। वो पहली बार था जब किसी ने उसे बिना शर्त समझा था। धीरे-धीरे दोस्ती ने उसकी पढ़ाई से ध्यान भटका दिया।
जो पैसे घर से महीने भर के खर्च के लिए आते, उनका इस्तेमाल अब फोन रिचार्ज, गिफ्ट्स और मूवी टिकटों में होने लगा।
पढ़ाई पीछे छूटती गई... और जब फाइनल रिज़ल्ट का दिन आया, मुकेश ने उसे देखने की हिम्मत तक नहीं की।
उसने चुपचाप अपना कमरा खाली किया और शहर छोड़ दिया।
घर पर किसी को कुछ नहीं बताया। हफ्तों तक कोई खबर नहीं थी। फिर एक दिन किसी जान-पहचान वाले ने बताया—
"आपका बेटा फलां शहर में है, एक प्राइवेट कंपनी में काम करता है। छोटी सी नौकरी है, पर ठीक-ठाक चल रहा है।"
माँ की आंखें भर आईं। पिता ने एक लंबी सांस ली।
लेकिन मुकेश हर रात उस ऑफिस से लौटते हुए एक ही बात सोचता—
"काश... हम वाकई पढ़ लेते।"
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अगर आप चाहें, तो मैं इसका अगला हिस्सा भी लिख सकता हूँ — जैसे कि मुकेश दोबारा पढ़ाई शुरू करता है या उसकी ज़िंदगी में कोई मोड़ आता है।